पढ़ते हुए एक बार मुझे खयाल आया, कि कुछ लोग भाषा का प्रयोग विचारों को छिपाने के लिए करते हैं, किंतु मेरा अनुभव यह रहा है कि उनसे भी अधिक लोग भाषा का प्रयोग विचारों के स्थान पर करते हैं।
एक व्यवसायी के संवाद को किसी अन्य के बनिस्पत अधिक सरल और कम से कम नियमों द्वारा निर्धारित होना चाहिए। जैसे कि-
कहना है।
कहें।
बोलना बंद करें।
कहना क्या है- यह तय होने से पहले बात शुरु कर देना और अपनी बात कह लेने के बाद भी बोलते रह जाना एक व्यवसायी को मुकदमे में उलझाता है; अथवा उसे कंगाली के कगार पर ला खड़ा करता है और यह पहली स्थिति दूसरी तक पहुंचने का ही संक्षिप्त रास्ता है। मैं यहां एक विधि-विभाग को वहन करता हूं और इस पर मेरा अच्छा खर्चा बैठता है, लेकिन यह मुझे कानून के पचड़े से बचाता है।
रुककर फूल चुनते हुए, विद्यालयी रविवार-भ्रमण के दौरान होने वाले वार्तालाप की भांति भले ही आप एक लड़की के साथ अथवा भोजनोपरांत दोस्तों के साथ गप्पें मारें, मगर दफ्तर में आपके संवाद छोटे होने चाहिए। भूमिका तथा भाषणबाजी से बचिए और अगली बात कहने से पहले विराम लीजिए। पापियों के लिए छोटे उपदेश उचित हैं और खुद धर्माचार्य भी लंबे उपदेशों में यकीन नहीं करते। बेवकूफों से पहले कहें और सबसे आखिर में कहें महिलाओं से। सार अंश तो सदा मध्य में भी रहता है- सेंडविच में मांस की तरह। चाट कर संतुष्ट हो लेने वालों के लिए किनारे लगा मक्खन ही क्या बुरा है!
याद रखिए यह भी कि समझदार दिखना बेहतर है बजाए समझदारी की बाते करने के। औरों के बतिस्पत कम बोलिए और खुद के बोलने के बनिस्पत ज्यादा सुनिए। सुनता हुआ आदमी बोलने की थकान से बचा रहता है और सामने वाला उससे खुश होता है। पुरुषों को अच्छा श्रोता मुहैय्या किया जाए और महिलाओं को पर्याप्त कागज, तो वे अपना सब कुछ कह देते हैं। पैसा बोलता है- मगर तब तक नहीं जब तक कि उसका मालिक जबान का कच्चा न हो। फिर तो, हर कथन का तेवर आक्रामक होता है। बोलती तो मुफलिती भी है, मगर कोई इसकी सुनता कहां!